‘जब कालारोआ के मजिस्ट्रेट हेमचंद्राकर ने किसानों के पक्ष में अपना निर्णय दिया तो स्वाभाविक रूप से उन्हें प्रोत्साहन मिला और वे विद्रोह पर उतारू हो गये। बंगाल के काश्तकारों को यूरोपीय नील बागान मालिक नील की खेती के लिए मजबूर करते थे परंतु 1859 ई. में उत्पीड़ित किसानों ने अपने खेतों में नील न उगाने का निर्णय लेकर नील बागान मालिकों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह नदिया जिले के गोविंदपुर गाँव से शुरू हुआ। इसके नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास थे जिनके नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी। इस आंदोलन को बुद्धिजीवियों का काफी समर्थन मिला। बुद्धिजीवियों ने अखबारों में अपने लेख द्वारा तथा जनसभाओं के माध्यम से विद्रोह के प्रति अपने समर्थन को व्यक्त किया। इसमें हिन्दू पैट्रियॉट के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी की विशेष भूमिका रही।नील बागन मालिकों के अत्याचारों का खुला चित्रण दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नीलदर्पण में किया है। 1860 ई. में नील आयोग के सुझाव पर जारी की गई अधिसूचना जिसमें उल्लेख किया गया कि रैयतों को नील की खेती करने के लिए बाध्य नहीं किया जाए तथा यह सुनिश्चित किया जाये कि सभी प्रकार के विवादों का निपटारा कानूनी तरीके से किया जाय। नील विद्रोह भारतीय किसानों का पहला विद्रोह माना जाता है।