नागर शैली पाँचवी शताब्दी के पश्चात भारत के उत्तरी भार्य में मंदिर वास्तुकला की एक मिल शैली विकसित हुई हि नागर शैली के रूप में जाना जाता है। जागर शैली के अंतर्गत भी देश के पश्चिमी मध्य और पूर्वी भागों में विभिन्न उप-शैलियों का उद्भव हुआ। नागर शैली की कुछ निम्नलिखित विशेषताएँ-
. मंदिरों में सामान्य रूप से मंदिर निर्माण करने की पंचायतन शैलों का अनुपालन किया गया. इसके अंतर्गत मुख्य मंदिर के सापेक्ष कस आकार के भू- विन्यास पर गौण देव मंदिरों की स्थापना की जाती थी।
मुख्य देव मंदिर के सामने समकक्ष या मंडप स्थित होते हैं। गृह नदी दोवयों गंगा और यमुना की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाता था। मंदिर परिसर में जल का कोई टैंक या जलाशयी नहीं होता
मंदिरों को सामान्य रूप से भूमि से ऊँचे बनाए गए मंच
(वेदी) पर निर्मित किया जाता था।. द्वार मंडपों के निर्माण में स्तंभों का प्रयोग किया जाता था।
-शिखर का उर्ध्वाधर शीर्ष एक क्षैतिज नालीयुक्त चक्र के रूप में समाप्त होता था, जिसे आमलक कहा जाता था। इसके ऊपर एक गोलाकार आकृति को स्थापित किया जाता था, जिसे कलरा कहा जाता है।
मंदिर के अंदर, दीवार को तीन क्षैतिज भागों में विभाजित किया गया था, जिन्हें रथ कहा जाता था। ऐसे मंदिर त्रिरथ मंदिर के रूप में जाने जाते थे। बाद में पंचरथ. और सप्तरथ यहाँ तक कि नवरथ मंदिर भी बनाये जाने लगे। मंदिर के इन विभिन्न भागों में कथात्मक मूर्तियाँ बनायी जाती थीं।
गर्भ था। गृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ होता था जो ढका होता
मंदिर परिसर चारदीवारी से घिरा नहीं होता था और प्रवेश द्वार भी नहीं होता था।