इनकी उत्पत्ति एवं विकास बौद्ध धर्म से अभिन्न रूप से जुड़ा है। स्तूप ( प्राकृत में धूप) का शाब्दिक अर्थ ( ढेर लगाना) होता है। शव के अंतिम संस्कार से संबद्ध टीले, जिनमें शारीरिक अवशेष सुरक्षित रखे जाते थे चैत्य के रूप में जाने गए। कालांतर में चैत्य निर्माण गुहा स्थापत्य से जुड़ गया। ऋग्वेद में ‘स्तूप) का उल्लेख, अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं के रूप में है। स्पष्टतः स्तूप की परंपरा बुद्ध काल से पहले ही विद्यमान थी, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रतीक रूप में इसे विशेष प्रतिष्ठा मिली। सुत्तपिटक के महापरिनिर्वाण सुत्ते के अनुसार, स्वयं महात्मा बुद्ध द्वारा अपने शरीर के अवशेषों पर स्तूप बनाने का विचार दिया गया था। अशोकावदान नामका बौद्ध ग्रंथ के अनुसार, (अशोक) ने (बुद्ध) के अवशेष पर स्तूप बनाने का आदेश दिया था। स्तूपों में महात्मा बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यों के अवशेष (धातु-मंजूषा सुरक्षित रखने के कारण वे बौद्ध आस्था तथा उपासना के प्रमुख केन्द्र बन गए ।